जिसे जनसाधारण द्वारा वास्तुशास्त्रियें से पूछा जाता हैं, चाहे वह किसी भी धर्म, विश्वास व श्रद्धा को माननेवाले हो, अपने ‘ईष्ट’ में इनकी जबरदस्त आस्था, विश्वास व श्रद्धा होती है। फिर ऐसे पवित्र व विश्वासी लोगें से हम यह दूसरा मूल व महत्त्वपूर्ण प्रश्न पूछे कि क्या ईश्वर या भगवान या उढपरवाले जैसी कोई शक्ति व ताकत वाकई में हैं या यह कोई पुरानी किवदंती हैं, जो प्राचीनकाल से चली आ रही हैं, क्या कोई भी इन प्रश्नें का एकदम सटीक जवाब दे सकता है; बिल्कुल अविश्वसनीय लगता हैं। यहाँ पर यह बात स्पष्ट हैं कि इसका सफल व साफ जवाब कोई भी नही दे सकता हैं वाकई में यह एक अत्यंत ही भ्रामक व भ्रमित कर देनेवाला प्रश्न है। फिर अगर मैं पूछूं कि भगवान, ईश्वर या सबके इष्ट कहाँ रहते हैं – स्वर्ग में या नर्क में, तो यह प्रश्न लोगें को और भी अजीब लगेगा तथा वह कुछ भी बोल पाने की स्थिति में न होकर निरुत्तर हो जायेंगे।
एक गहन व संपूर्ण विश्लेषण द्वारा सरल-वास्तु को हरएक कोण से अध्ययन करने के पश्चात्, सबसे ‘महत्त्वपूर्ण व प्रबल प्रश्न’ यूँ सामने आता है – कौन से ऐसे शक्तिशाली व बलशाली धर्माधिकारी हैं जो यह निश्चय करते हैं कि भगवान या देव-देवियें को घर के उत्तर-पूवी कोने में स्थापित किया जाये। अगर हम लोग यह सोच रहे हैं कि देवी-देवताओं की प्रतिमाओं को कहाँ व किस शुभ दिशा में बैठाई जाये, तो हमें किसकी सलाह लेनी चाहिए या किस विशेषज्ञ की सलाह पर अमल करना चाहिए? अगर हम नश्वर मनुष्यें द्वारा यह निर्णय लिया जाएगा कि हमारे घर के कुलदेवता एवं दूसरे देवी-देवताओं का निवास कहाँ होगा या कहाँ पर स्थापित होगें, तो इसमें सबसे बड़ी विडंबना की बात क्या होगी कि हम तुच्छ मानव क्या इतना बड़ा निर्णय लेने के अधिकारी हैं या सक्षम हैं! क्या भगवान की दशा ऐसी हो गई हैं कि हम मनुष्य, उनके आलय या गृह का निर्णय लेगें? ऐसी स्थिति में हमें अपनी सुननी चाहिए या भगवान की? हमें किसकी बात सुननी चाहिए जो हमें न्याय उचित सही न्यायोचित तरीका बतायेगा, फिर अगर, भगवान को हम अपने हिसाब से स्थापित करेंगे या किसी वास्तु-विशेषज्ञ की राय के अनुसार ऐसा करेंगे, तो हम मनुष्य तो ईश्वर से भी ज़्यादा शक्तिशाली माने जायेंगे, जो हमेशा अपनी मनमानी कर सकते हैं। इसके अलावा हम कैसे यह निर्णय ले सकते हैं कि उत्तर-पूवी दिशा ही भगवान के विराजमान होने की सही दिशा व स्थान है। उनकी प्रतिमाओं की स्थापना, उनके ‘उपयुक्त जगह’ पर ही होनी चाहिए।
अगर हम यह मानकर चले कि ईश्वर सर्वत्र सर्व-भूत रुप से विद्यमान हैं तथा सर्वशक्तिमान हैं, तो हमें उन पर अथृ्, भगवान पर ही छोड़ देना चाहिए कि वह कहाँ पर स्थापित होना या विराजमान होना चाहते हैं, फिर चाहें वह जगह घर पर कहीं भी हो या किसी भी स्थान पर हो अथवा किसी भी दिशा में हो, जहाँ पर ईश्वर की इच्छा हो, क्येंकि भगवान के उढपर कोई भी शक्ति नही हैं तथा उनकी इच्छा सर्वेपरि होती हैं।
सरल-वास्तु, एक बहुत ही सीधा-सादा वैज्ञानिक उपाय है, जो इस ‘कठिन समस्या’ के समाधान प्रदान करता है, सरल-वास्तु के अनुसार पूजागृह कहीं भी स्थापित किया जा सकता हैं घर में, सिर्फ ध्यान रखने वाली बात यह हैं कि वह जगह स्नानघर व शौचालय के साथ न लगी हो या एकदम बगल में न जुड़ी हो। इसके अलावा ‘स्टोर-रुम’ आदि भी इस कक्ष के साथ न लगे हो। इसके पीछे का साधारण कारण यह है कि जब हम पूजाघर में ‘सकारात्मक ऊर्जाओं’ की वर्षा कराना चाहते हैं तो पूजाघर को रोशनी से जगमगाकर, ‘दीप-दीपमालाओं’ व प्रकाश के दूसरें स्रोतों के माध्यम से प्रकाशमान करते हैं, इसके अलावा भगवान, को प्रसन्न करने के लिए हम सब ‘कपूर’, घी आदि के दिए जलाते हैं व मंगल-आरती करते हैं, जिससे सभी प्रकार की सकारात्मक ऊर्जा का घर में आगमन हो जाता है। यदि इस अवस्था में, पूजाघर किसी स्नानघर अथवा शौचालय के बगल में होता हैं, तो यह बहुत सारी नकारात्मक ऊर्जाओं को जन्म देती हैं एवं प्रकृति की ‘वातावरणीयसामंजस्यता’ को बुरी तरीके से प्रभावित करती हैं या करेंगी। इसीलिए यह भी पूरी तरीके से ‘वजृ’ हैं तथा पूरी तरह अमान्य होगी जनसाधारण के लिए, जो इसे किसी भी हालत में स्वीकार नही करेंगे।
हमारे प्रतिष्ठान सि. जी. परिवार के द्वारा एक ‘सर्वे व जाँच’ कराने के दौरान यह पाया गया कि इस पृथ्वी पर ऐसे भी लोग हैं, जो भगवान या ईश्वर की पूजा-अर्चना में भी कँजूसी व कटौती करते हैं। उदाहरण स्वरुप घर में पूजा के दौरान सिर्फ एक टुकड़ा कपूर की जलायेंगे या कुछ लोग तो दो-तीन कपूर भी एक साथ ही जला देते हैं। ऐसे भी लोग होते हैं जो आधी जली हुई या पहले से बुझी अगरबत्ती को दुबारा जलाते हैं पूजा के लिए, जो सर्वथा विधि-विधान के हिसाब से अनुचित हैं।
इसका मतलब यह हैं कि लोगों का ध्यान व मनन, ईश्वर की प्रार्थना एवं वंदन पर नही बल्कि पूजा के सामग्री के उढपर हैं, जिसको वह भगवान को अपृ करते हैं या चढाते हैं। ऐसे मनुष्यों में यह प्रवृत्ति होती हैं कि देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना में भी खर्चा बचाना चाहिए जिसके लिए वह अगरबत्ती एवं दूसरी पूजन-सामग्री आदि से भी कटौती करने को तैयार रहते हैं। ऐसे लोग धर्म से ज़्यादा, अर्थ (धन) को अधिक महत्त्व देते हैं। जैसे दीपक, दीपदान, पंचप्रदीप, दीप, अगरबत्ती आदि। अगर हम इन प्रकाश स्रोतें को प्रज्वलित कर कुछ समय पश्चात् अपनी सुविधानुसार इन स्रोतों को बुझा देंगे, तो हम लोग अज्ञानवश सकारात्मक ऊर्जा की मात्रा को अपने घर में कम कर देते हैं तथा वह ऊर्जा भी जोकि घर के संपूर्ण रुप से प्रकाशमय होने के कारण, पहले से ही घर में मौजूद थी प्रभावहीन हो जायेगी। इस प्रकार की भूल की पुनरावृत्ति ना हो, इसके लिए उनकी प्रज्वलित बत्तियों को बुझाने का प्रयास कभी भी नहीं करना चाहिए, क्येंकि यह एक बहुत बड़ा अपशगुन व अपवित्र कार्य होने के साथ-साथ पाप की क्रिया भी मानी जाती हैं। घर में अनवरत रुप से सकारात्मक ऊर्जाओं का आगमन व बहाव चिरन्तन काल तक हमेशा के लिए बना रहें, इसका ही हम सब मनुष्यें को अथक रुप से प्रयास करते ही रहना चाहिए। फिर चाहें वह अपना ही घर हो या किराए का या कार्यस्थान।
यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि किस प्रकार से ज़्यादा से ज़्यादा, सकारात्मक ऊर्जाओं को हमारे घरों एवं कार्यस्थलें में अधिक से अधिक मात्रा में रख सके तथा पैदा भी कर सके। यहीं हमारे जीवन का परम लक्ष्य एवं उद्देश्य होना चाहिए। सकारात्मक ऊर्जा की मात्रा को बढ़ाना एवं उन्हें बाँध कर रखना, एक बड़ा ही कठिन कार्य हैं। सरल-वास्तु यह कहता हैं कि हम लोग किसी भी घर अथवा कार्यस्थल में ज़्यादा से ज़्यादा सकारात्मक ऊर्जा पैदा कर सकते हैं, जब हम अपने ईष्ट- देव / देवी की पूजा अर्चना करते हुए प्रतिदिन प्रात व संध्याकाल में उनकी प्रतिमाओं तथा चित्रों के समक्ष पुष्प द्वारा पूजा-अर्चना स्वरुप पुष्पांजलि अपृ करते हुए व दीप, अगरबत्ती, कपूर इत्यादि जलाते हैं, तो स्वत सकारात्मक ऊर्जाओं की वृद्धि होती है।
सार्वजनिक रुप से बहुत सारे त्यौहारों का मनाना,उदाहरणार्थ गणेश उत्सव, दुर्गेत्सव व नवरात्रि-उत्सव आदि मंडलों तथा लोगों द्वारा सार्वजनिक रुप से मनाया जाता हैं तो पूजा-स्वरुप हम पुष्पांजलि द्वारा विभिन्न प्रकार के पुष्प – जैसे गेंदा, गुड़हल, गुलाब, चमेली, रजनीगंधा, आम्रपल्लव, तुलसीपत्ता, बेलपत्र, दूब घास आदि श्रद्धा व विश्वास से अपृ करते हैं, श्रद्धास्वरुप फूलमालाएँ अपृ करते हुए देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करते हैं तो, उस सार्वजनिक स्थान में उपस्थित भक्तवृन्दें की असीम श्रद्धा व पवित्रता के फलस्वरुप सकारात्मक ऊर्जाओं व घनात्मक शक्तिओं में अभूतपूर्व वृद्धि होती हैं, जिससे सभी भक्त अपार श्रद्धा से भरे भावावेश की स्थिति में आ जाते हैं तथा उन्हें अपार पुण्य भी प्राप्त होता हैं। इसीलिए मुम्बई शहर में, गणपति उत्सव के दौरान ‘लालबाग चा राजा’ व ‘सिद्धिविनायक’ जाने की होड़, लगी रहती हैं, तथा भक्त ‘शिवरात्रि’ व ‘नवरात्रि-उत्सव’ के दिनों में व्रत आदि करते हैं तो इस प्रकार की पारम्परिक क्रिया का निर्वाह करना, बहुत ही पवित्र व श्रेष्ठ कार्य समझा जाता हैं, जिससे व्यक्तिविशेष के परिवार के सदस्यें एवं खुद के उढपर ईश्वर की असीम कृपास्वरुप सकारात्मक ऊर्जा की वर्षा होती हैं तथा घर में असीम सुख, शान्ति व समृद्धि का वातावरण बन जाता हैं, जो सभी के लिए शुभ व लाभकारी होता हैं।
यहाँ तक कि सार्वजनिक मंडलें में देवी-देवताओं की पूजा के दौरान, इस्तेमाल किये गये पुष्पमालाओं व पुष्पों के ‘निर्माल्य’ आदि को हटाने के लिए भी अत्यंत पवित्रता और श्रद्धा के साथ, बहते हुए पानी के स्त्रोतों या स्रोत आदि में डालकर विसर्जन करने की प्रक्रिया का प्रावधान है।
धार्मिक स्थलों पर पहुँचने के बाद देवी-देवताओं के चरणों में पुष्प, बेलपत्र, आम्रपल्लव, तुलसीपत्ता, दूब, पुष्प-पुष्पमालाओं इत्यादि को चढ़ाने के पश्चात्, पुजारी द्वारा दिए गए प्रसाद स्वरुप पुष्प-पुष्पमाला, मिठाई, फल व चरणामृत रुपी प्रसाद को ग्रहण कर धन्य-धन्य हो, अपने-अपने घरें को लौट जाते हैं। इस प्रक्रिया में मन की प्रसन्नता एवं सकारात्मक तेज, एक व्यक्ति से दूसरे एवं दूसरे से तीसरे व्यक्ति तक फैलकर पूरे वातावरण को एक भरपूर सकारात्मक तेज व शक्ति से ओत-प्रोत कर देती हैं। पूजा के यह अभिन्न अंग होते हैं, यह क्रिया-कलाप व कर्म-काण्ड जिसका संपूर्ण देशवासी पूरे दिल से पालन करते हैं।
लोग अपने प्रतिष्ठानों, घरों, शादी-विवाह मंडपो’, समारोह कक्षों, मंदिरों के प्रॉँगण, पंडालों व सार्वजनिक उत्सव-गृहों आदि स्थानों को पुष्पों के तोरणों, पुष्प की लड़ियों, पुष्पमालाओं, पुष्पगुच्छ, बंधनवार व पुष्प के आभूषणों द्वारा सजाने-सॅँवारने की परम्परा चली आ रही हैं। पुष्पों के आभूषणों द्वारा स्त्रियों व कन्याओं का खुद का अलंकरण व सजाने-सॅँवरने की परम्परा अत्यंत प्राचीन है। पुष्पों के साथ-साथ अगरबत्ती, छोटी या बड़ी, पतली व मोटी आठ-दस घंटो तक जलते रहनेवाली, लोबान व धूपबत्ती (सुखी व गीली) के धुँए तथा सुगंध से सारा वातावरण धार्मिकता व पवित्रता से सराबोर हो, भक्तजनों के हृदय में श्रद्धा, पवित्रता व धर्म के प्रति अटूट विश्वास पैदा करता है।
नवरात्र एवं दुर्गा-पूजा के 9-10 दिनों में, ‘घट की स्थापना’ से लेकर दसवें दिन के विसर्जन तक, आरती, ‘धुनची नृत्य’ में प्रयुक्त जलती हुई नारियल की जटा व सुगंधित लोबान से भरे मिट्टी के पात्र हाथ में लेकर भक्तों द्वारा किये गये नृत्य द्वारा माँ दुर्गा की आराधना व बजते हुए शंख, घंटे-घड़ियाल तथा ‘ढाकों’ की सम्मिलित आवाज़ व नाद से मंदिर तथा सार्वजनिक मंडलों में समूचा वातावरण भक्तिमय, पवित्र, श्रद्धा व आत्मीयता से भरा ऐसा प्रतीत होता हैं मानों भक्तों की आत्मा का परमात्मा के साथ, मिलन हो रहा हैं, जो भक्तों को मोक्ष दिलाने का मार्ग प्रशस्त करता हुआ, उनके हृदय में परम शान्ति व भावावेश की भावना को बखूबी दशा हैं तथा जन्म भी देता है। भक्तगण अत्यंत श्रद्धा व पवित्रता से ‘पुष्पांजलि’ देवी को अपृ करते हुए अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार आम्रपल्लव या आम की पत्तियों का एक अलग ही महत्त्व है, फिर चाहें वह मुख्य – पूजन घर की स्थापना के समय, पूजन – घट यानि कलश के मुँह पर नारियल या ‘ढाब’ के नीचे, सिन्दूर लगें हुए आम की पत्तियों के साथ घट को गीली मिट्टी के उढपर अच्छी तरह बिठाकर, पूजा का विधि-विधान के साथ शुभारंभ करना एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण रीति रही है। जोकि किसी भी पूजा-प्रक्रिया का सर्वप्रथम कदम होता है। यहाँ पर ध्यान रखनेवाली बात यह हैं कि आम्रपल्लव ही एकमात्र ऐसी पवित्र पत्ती होती है, जिसका उपयोग घट के उढपर (ताँबे या पीतल) ढाब या नारियल को रखकर ही, पूजा-विधि की शुरुआत की जाती हैं। यह सब धार्मिक व पवित्र रीति-रिवाज प्राचीनकाल से भारत में होते ही आ रहें हैं तथा आगे भविष्य में होते ही रहेंगे, इसका मुझे पूर्ण विश्वास हैं। इनके पीछे ‘वास्तु’ का गूढ़ रहस्य छिपा हुआ हैं, जो ‘सकारात्मकता’ का संदेश देता हैं तथा पूजा के सम्पूर्ण वातावरण को पवित्र व अध्यात्मिकता, आच्छादित या भर देता हैं, जिससे सभी प्रकार की वातावरण में स्थित सभी प्रकारकी ‘नकारात्मक शक्तियों’ का अंत होता हैं तथा ‘शुद्ध, सकारात्मक शक्तियों व घनात्मक ऊर्जाओं’ का पूरे उत्साह व उन्माद से हमारे निवासस्थलों व कायेत्रों में प्रसार एवं स्थापना होती हैं।
सकारात्मक ऊर्जाओं को बढ़ाने में निर्मल जल बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटक हैं, जो उन्हें घर के अंदर लाने में भी अति सहायक होता हैं। परन्तु ‘बहते हुए जल’ का महत्त्व एवं उसकी उपयोगिता अलैकिक हैं, बहता हुआ पानी, सुख व परमानंद की हमारे हृदय में अनुभूति कराता हैं, जो हमारे आसपास के वातावरण को भी सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण बनाता हैं। विश्वइतिहास की प्राचीनतम सभ्यताओं व संस्कृतिओं में ‘ग्रीको-रोमन कालीन सभ्यता’, जोकि छठीं शताब्दी ईसा पूर्व से चली आकर भारतीय परिपेक्ष्य में, वैदिक काल से पहले की संस्कृति व सभ्यता जैसे ‘हडप्पा, मेहनजोदड़ो, लोथल, कालीबंगन’ आदि के समय में भी सकारात्मक ऊर्जाओं के होने के अवशेष चिह्न मिलते हैं, जैसे ‘बहते हुए पानी की नाली’, ‘सार्वजनिक स्नानघर’ इत्यादि। मेहनजोदड़ो की जलनिकासी व्यवस्था द्वारा विभिन्न नालियों के माध्यम से, सिन्धु नदी से पानी लाकर व विभिन्न फैले हुए नालियों के जाल द्वारा, पूरे नगर में घर-घर में जल पहुँचाने की व्यवस्था थी, जिसकी विधि का अनुसरण, आज भी हमारे गाँव, कस्बें, छोटे शहरों आदि में दिखाई देता है। जब नालियों द्वारा, वर्तमान समय में भी हमारे घरों से निकासित दूषित जल तथा मैल अपने गन्तव्य स्थान पर शुद्धिकरण हेतु भेजा जाता हैं, जिसे ‘रिसाईक्लिंग’ कहते हैं।
इस प्रकार बहते हुए जल द्वारा, जल का घरों में आना व घरों से निकाले जाना, घर के लिए अत्यंत ही महत्वपूर्ण क्रिया हैं, जिससे ज़्यादा से ज़्यादा मात्रा में सकारात्मक ऊर्जा को हमारे घरों के पूजागृहों, सामूहिक पूजन स्थलों व गृह के विभिन्न जगहों पर पहुँचाया जाए, जहाँ लोग विभिन्न समारोहों व सामूहिक उत्सवों में अधिक से अधिक संख्या में उपस्थित हों, जब भी इस प्रकार के कार्यक्रम आयोजित किये तब यह सुनिश्चित रहे कि, इसमें पूरे परिवार व समाज की भागिदारी सुनिश्चित हों।
घर-घर तक पानी पहुँचाने की विधि व साधन हमारे प्राचीन संस्कारों का अभिन्न अंग रहा है, क्योंकि जल द्वारा ही हमारी नित्य की दैहिक व दैविक सभी क्रियाकलापों की शुरुआत व समापन होता है। जल का, हमारे भारतीय संस्कृति व सभ्यता में विशेष महत्त्व रहा है तथा इसके बिना हमारा जीवन ही असंभव व असहनीय रहा हैं व रहेगा। आज भी हमारे गाँव, शहर व कस्बें का आर्थिक, सामाजिक व व्यावसायिक जीवन, चाहे वह शहर में हो या गाँव में, निवास करनेवाले सभी जनों का रहन-सहन व नित्यप्रति जिंदगी, सम्पूर्ण तौर से जल पर निर्भर हैं, जो हमारे घरों, निवासस्थलों व कायेत्रों में अत्यधिक उपयोगी है, घर के बाहर हमारे ऑफिस व अन्य प्रतिष्ठानों में भी जल का इस्तेमाल सभी जरुरतमंद कर्मचारियों द्वारा सेवन करने के लिए पर्याप्त जल का होना अत्यंत ही जरुरी है। प्रतिष्ठान द्वारा जिसको पूरा करना उनके लिए सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है। पानी प्यासे का तर्पण करते हुए तथा उसकी प्यास बुझाते हुए, उसे परम आत्मिक-शान्ति का अनुभव कराती है।
आज जल का प्रयोग कर पूरे विश्व में नदियों के किनारे बसी सभ्यतायें तथा समस्त ब्रह्माण्ड ही सकारात्मकता, राजी-खुशी, समृद्धि तथा स्वास्थकर होने का लाभ उठा पा रही हैं। जल, जो पूरी पृथ्वी को प्राचीन ‘वास्तु’ की अनमोल देन हैं, जिसको हम ‘बहते हुए जल या पानी’ की संज्ञा देते हैं, जिसका वास्तुपरायण होने का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण, ‘पंचतत्वें’ में से सबसे महत्वपूर्ण व अनमोल ‘जल’ का ही होना स्वाभाविक है।